Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः निर्मला



...

निर्मला ने कहा- बहिन, जो होना था वह हो चुका, अब उनसे कब तक भागती फिरोगी। रात ही को चले जायेंगे। अम्मां कहती थीं।
सुधा से सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा- कौन मुंह लेकर उनके पास जाऊं? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरा पैर न थर्राने लगे और मैं गिर पडूं।
निर्मला- चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। तुम्हें संभाले रहूंगी।
सुधा- मुझे छोड़कर भाग तो न जाओगी?
निर्मला- नहीं-नहीं, भागूंगी नहीं।
सुधा- मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है। मैं इतना घोर व्रजपाता होने पर भी बैठी हूं, मुझे यही आश्चर्य हो रहा है। सोहन को वह बहुत प्यार करते थे बहिन। न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आप हो रोती रहूंगी। क्या रात ही को चले जायेंगे?
निर्मला- हां, अम्मांजी तो कहती थी छुट्टी नहीं ली है।
दोनो सहेलियां मर्दाने कमरे की ओर चलीं, लेकिन कमरे के द्वार पर पहुंचकर सुधा ने निर्मला से विदा कर दिया। अकेली कमरे मे दाखिल हुई।
डॉक्टर साहब घबरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा हो रही है। भांति-भांति की शंकाएं मन मे आ रही थीं। जाने को तैयार बैठे थे, लेकिन जी न चाहता था। जीवन शून्य-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी। वह आजन्म नि:सन्तान रह सकते थे, पर सन्तान पाकर उससे वंचित हो जाना उन्हं असह्रा जान पड़ता था। क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव जीवन का महत्व है? यह केवल बालकों का घरौंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है न बिगड़ने का? फिर बालकों को भी तो अपने घरौंदे से अपनी कागेज की नावों से, अपनी लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है। अच्छे खिलौने का वह जान के पीछे छिपाकर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है तो वह विचित्र बालक है।
किन्तु बुद्धि तो ईश्वर का यह रुप स्वीकार नहीं करती। अनन्त सृष्टि का कर्त्ता उद्दण्ड बालक नहीं हो सकता है। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्वि का पहुंच से बाहर है। खिलाड़ीपन तो साउन महान् गुणों मे नहीं! क्या हंसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना खेल है? क्या ईश्वर ऐसा पैशाचिक खेल खेलता है?
सहसा सुधा दबे-पांव कमरे में दाखिल हुई। डासॅक्टर साहब उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले-तुम कहां थी, सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था।
सुधा की आंखों से कमरा तैरता हुआ जान पड़ा। पति की गर्दन मे हाथ डालकर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी, लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सांत्वना का अनुभव हो रहा था। पति के वक्ष-स्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का संचार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक अंचल की आड़ में आ गया हो।
डॉक्टर साहब ने रमणी के अश्रु-सिंचित कपोलों को दोनो हाथो में लेकर कहा-सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था, फिर वह क्यों बैठा रहता? जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भांति प्रणय भी दु:ख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी के साथ हंसनेवाले बहुतेरे मिल जाते हैं, रंज में जो साथ रोये, वहर हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीब हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जानें? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिलकुल मिटा दिया। आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरुप देखा।;?!
सुधा ने सिसकते हुए कहा- मैं नजर के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुंह भी न देखने पाये। न जाने इन सदिनों उसे इतनी समझ कहां से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता, तो अपने केष्ट भूलकर मुस्करा देता। तीसरे ही दिन मरे लाडले की आंख बन्द हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाईं।
यह कहते-कहते सुधा के आंसू फिर उमड़ आये। डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगाकर करुणा से कांपती हुई आवाज में कहा-प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्व न मरा होगा, जिससे घरवालों की दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई।
सुधा- निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की। मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी आंखें नहीं झपकी। रात-रात लिये बैठी या टहलती रहती थी। उसके अहसान कभी न भूलंगी। क्या तुम आज ही जा रहे हो?
डॉक्टर- हां, छुट्टी लेने का मौका न था। सिविल सर्जन शिकार खेलने गया हुआ था।
सुधा- यह सब हमेशा शिकार ही खेला करते हैं?
डॉक्टर- राजाओं को और काम ही क्या है?
सुधा- मैं तो आज न जाने दूंगी।
डॉक्टर- जी तो मेरा भी नहीं चाहता।
सुधा- तो मत जाओ, तार दे दो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। निर्मला को भी लेती चलूंगी।
सुधा वहां से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हलका हो गया था। पति की प्रेमपूर्णा कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और संताप का हरण कर लिया था। प्रेम में असीम विश्वास है, असीम धैर्य है और असीम बल है।


निर्मला ने कहा- बहिन, जो होना था वह हो चुका, अब उनसे कब तक भागती फिरोगी। रात ही को चले जायेंगे। अम्मां कहती थीं।
सुधा से सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा- कौन मुंह लेकर उनके पास जाऊं? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरा पैर न थर्राने लगे और मैं गिर पडूं।
निर्मला- चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। तुम्हें संभाले रहूंगी।
सुधा- मुझे छोड़कर भाग तो न जाओगी?
निर्मला- नहीं-नहीं, भागूंगी नहीं।
सुधा- मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है। मैं इतना घोर व्रजपाता होने पर भी बैठी हूं, मुझे यही आश्चर्य हो रहा है। सोहन को वह बहुत प्यार करते थे बहिन। न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आप हो रोती रहूंगी। क्या रात ही को चले जायेंगे?
निर्मला- हां, अम्मांजी तो कहती थी छुट्टी नहीं ली है।
दोनो सहेलियां मर्दाने कमरे की ओर चलीं, लेकिन कमरे के द्वार पर पहुंचकर सुधा ने निर्मला से विदा कर दिया। अकेली कमरे मे दाखिल हुई।
डॉक्टर साहब घबरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा हो रही है। भांति-भांति की शंकाएं मन मे आ रही थीं। जाने को तैयार बैठे थे, लेकिन जी न चाहता था। जीवन शून्य-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी। वह आजन्म नि:सन्तान रह सकते थे, पर सन्तान पाकर उससे वंचित हो जाना उन्हं असह्रा जान पड़ता था। क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव जीवन का महत्व है? यह केवल बालकों का घरौंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है न बिगड़ने का? फिर बालकों को भी तो अपने घरौंदे से अपनी कागेज की नावों से, अपनी लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है। अच्छे खिलौने का वह जान के पीछे छिपाकर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है तो वह विचित्र बालक है।
किन्तु बुद्धि तो ईश्वर का यह रुप स्वीकार नहीं करती। अनन्त सृष्टि का कर्त्ता उद्दण्ड बालक नहीं हो सकता है। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्वि का पहुंच से बाहर है। खिलाड़ीपन तो साउन महान् गुणों मे नहीं! क्या हंसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना खेल है? क्या ईश्वर ऐसा पैशाचिक खेल खेलता है?
सहसा सुधा दबे-पांव कमरे में दाखिल हुई। डासॅक्टर साहब उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले-तुम कहां थी, सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था।
सुधा की आंखों से कमरा तैरता हुआ जान पड़ा। पति की गर्दन मे हाथ डालकर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी, लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सांत्वना का अनुभव हो रहा था। पति के वक्ष-स्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का संचार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक अंचल की आड़ में आ गया हो।
डॉक्टर साहब ने रमणी के अश्रु-सिंचित कपोलों को दोनो हाथो में लेकर कहा-सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था, फिर वह क्यों बैठा रहता? जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भांति प्रणय भी दु:ख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी के साथ हंसनेवाले बहुतेरे मिल जाते हैं, रंज में जो साथ रोये, वहर हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीब हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जानें? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिलकुल मिटा दिया। आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरुप देखा।;?!
सुधा ने सिसकते हुए कहा- मैं नजर के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुंह भी न देखने पाये। न जाने इन सदिनों उसे इतनी समझ कहां से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता, तो अपने केष्ट भूलकर मुस्करा देता। तीसरे ही दिन मरे लाडले की आंख बन्द हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाईं।
यह कहते-कहते सुधा के आंसू फिर उमड़ आये। डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगाकर करुणा से कांपती हुई आवाज में कहा-प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्व न मरा होगा, जिससे घरवालों की दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई।
सुधा- निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की। मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी आंखें नहीं झपकी। रात-रात लिये बैठी या टहलती रहती थी। उसके अहसान कभी न भूलंगी। क्या तुम आज ही जा रहे हो?
डॉक्टर- हां, छुट्टी लेने का मौका न था। सिविल सर्जन शिकार खेलने गया हुआ था।
सुधा- यह सब हमेशा शिकार ही खेला करते हैं?
डॉक्टर- राजाओं को और काम ही क्या है?
सुधा- मैं तो आज न जाने दूंगी।
डॉक्टर- जी तो मेरा भी नहीं चाहता।
सुधा- तो मत जाओ, तार दे दो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। निर्मला को भी लेती चलूंगी।
सुधा वहां से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हलका हो गया था। पति की प्रेमपूर्णा कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और संताप का हरण कर लिया था। प्रेम में असीम विश्वास है, असीम धैर्य है और असीम बल है।

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